कहा धरा ने ये सूरज से ,प्रिय सूरज जी
बहुत सताते हो हमको ,तुम्हारी मरजी
जब तुम होते दूर मुझे कुछ नहीं सुहाता
साथ तुम्हारा पाने तरस तरस मन जाता
ग्रीष्म ऋतू में आकुल व्याकुल दिल होता है
तुम्हारी उष्मा सहना मुश्किल होता है
जब करीब आते हो ,तन जल जल जाता है
मगर दूर रहना भी मन को खल जाता है
प्यास बुझाने आते ,बर्षा के मौसम में
पर बादल बाधा बन जाते मधुर मिलन में
आते हो कुछ देर के लिए ,छुप जाते हो
आँख मिचोली कर के मन को अकुलाते हो
और शिशिर में आस मिलन की जब जगती है
शीत लहर की चुभन, दग्ध तन को करती है
किन्तु तरसता रहता है मन तुम्हारे बिन
नहीं समय मिलता तुमको ,होता छोटा दिन
फिर आता है जब बसंत का मौसम प्यारा
मादकता से पुलकित होता तन मन सारा
होली का मदनोत्सव या वेलेंटा इन डे
तुम्हारा सानिध्य तार छूता है तन के
प्यार लुटाते हो मुझ पर तुम जी भर भर जी
कहा धरा ने ये सूरज से ,प्रिय सूरज जी
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7 responses to “ऋतू संहार”
rakesh kaushik
February 12th, 2011 at 20:42
वाह वाह – लाजवाब
zeal ( Divya)
February 12th, 2011 at 21:45
Beautiful poetry !
ghotoo
February 13th, 2011 at 06:55
thanks for liking my poem
ANAND
February 13th, 2011 at 09:47
ब्लागजगत पर आपका स्वागत है ।
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धन्यवाद
krjoshi
February 13th, 2011 at 10:25
बहुत लाजवाब अभीब्यक्ति| धन्यवाद|
harish singh
February 13th, 2011 at 23:20
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संगीता पुरी
February 19th, 2011 at 21:14
इस सुंदर से चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्लॉग जगत में स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!